प्रदीप बहुगुणा, देहरादून
दून पुस्तकालय में सोमवार को सरकार से उत्तराखण्ड के लिए ठोस जल नीति बनाने की माँग की गई। वक्ताओं ने राज्य में घटते भूजल भंडार और समग्र रूप से जल संसाधनों के कुप्रबंधन पर चिंता व्यक्त कीं।
दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, उत्तराखंड और हिमालय के संदर्भ में महत्वपूर्ण मुद्दों पर समय-समय पर चर्चा का आयोजन करता रहा है। पूर्व में अब तक केदारनाथ आपदा के आलोक में प्राकृतिक आपदा और उसके बाद वनाग्नि पर ऐसे दो गोलमेज सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं। सोमवार को इसी क्रम में उत्तराखंड की जल व्यवस्था पर तीसरा गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया। इस गोलमेज सम्मेलन में विभिन्न पृष्ठभूमि के विशेषज्ञों ने भाग लिया और राज्य में घटते भूजल भंडार और समग्र रूप से जल संसाधनों के कुप्रबंधन पर चिंताएँ व्यक्त कीं।
दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के संस्थापक निदेशक रहे प्रोफेसर बीके जोशी ने चर्चा शुरू करने से पहले राज्य के घटते जल संसाधनों पर एक सिंहावलोकन प्रदान किया।ए.आर .सिन्हा (सेवानिवृत्त पीसीसीएफ) ने जलागम विकास और नदी के प्रवाह को बनाए रखने में जल स्रोतों और धाराओं की भूमिका पर अपना अनुभव साझा किया। उन्होंने जल को नियंत्रित करने में वृक्ष प्रजातियों और वनस्पति आवरण की भूमिका पर ध्यान केंद्रित किया। टाटा ट्रस्ट के डॉ विनोद कोठारी ने स्प्रिंगशेड प्रबंधन के बारे में ज्ञान और सीख साझा की और राज्य में जलस्रोत सूची तैयार करने के कार्य पर काम करने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने बताया कि राज्य में 90% से अधिक ग्रामीण आबादी पीने के पानी और अन्य जरूरतों के लिए जलस्रोतों पर निर्भर है। जलस्रोत को आजीविका के अवसरों से जोड़ना जलस्रोत संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है। एच.पी. उनियाल ने हाइड्रोलॉजी को समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता जतायी। उन्होंने कहा कि स्प्रिंगशेड प्रबंधन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्ट्रेट जैकेट दृष्टिकोण उत्तराखंड के विभिन्न स्प्रिंग टाइपोलॉजी और भूवैज्ञानिक विविधता में काम नहीं कर सकते हैं।
उन्होंने उत्तराखंड में चाल (प्राकृतिक जल भंडारण), खाल (तालाब) की पहचान करने की आवश्यकता पर जोर दिया क्योंकि वे उच्च जल विज्ञान संबंधी कार्य करते हैं और जलस्रोतों को रिचार्ज करते हैं।डॉ. एस.के.भरतरी ने सूखते जलस्रोतों,सतही जल अपवाह और पुनर्भरण क्षेत्रों की पहचान में आइसोटोप पद्धति के उपयोग के तकनीकी पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने अल्मोड़ा के कोसी बेसिन पर तीन दशक से भी पहले किए गए अध्ययनों से महत्वपूर्ण जानकारी साझा की।
प्रसिद्ध पुरातत्वविद् प्रो. एम.पी. जोशी ने अतीत में प्रचलित जल प्रबंधन तकनीकों को प्रदर्शित किया और बताया कि किस तरह पारंपरिक जल प्रबंधन के बारे में समाज से ज्ञान लुप्त हो रहा है। आज के इस गोलमेज सम्मेलन में शामिल कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं में यह बात उभर कर आयी कि उत्तराखंड राज्य के गठन के 24 साल बाद भी राज्य में ककरगर जल नीति नहीं है, इसी तरह भूजल निकासी के नियम भी मनमाने हैं। सड़क व अन्य विकास निर्माण की तकनीक भी बेतरतीब है और इससे भूजल स्रोतों पर असर पड़ सकता है। इसी तरह पुनर्भरण क्षेत्रों के संरक्षण पर भी बहुत कम ध्यान दिया जाता है। उन्होंने कहा कि चरागाहों के महत्व को समझ कर उनके संरक्षण की दिशा में कार्य करना होगा क्योंकि वे भूजल पुनर्भरण में मदद करते हैं साथ ही भारी मात्रा में कार्बन और जैव विविधता का संरक्षण भी करते हैं। विशेषज्ञ समूह ने राज्य में जल प्रबंधन को बेहतर बनाने के लिए एक प्रेशर ग्रुप विकसित करने पर जोर दिया। कहा गया कि हिमालयी क्षेत्र व उत्तराखंड में भविष्य में जनसंख्या और पर्यटन का दबाव बढ़ने वाला है इसलिए राज्य में जल प्रबंधन के संबंध में कुछ कदम तत्काल उठाए जाने चाहिए।
इस सम्मेलन के संयोजक व सिडार के मुख्य कार्यकारी डॉ.विशाल सिंह ने भी उत्तराखण्ड के जल प्रवाह व उनके सरंक्षण पर अपनी बात रखी। इस अवसर पर दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के प्रोग्राम एसोसिएट, चंद्रशेखर तिवारी और डॉ.योगेश धस्माना व सुंदर सिंह बिष्ट भी मौजूद थे।